राजनीतिक सुहागरात शाम की सज़ावट से जब ज़ुल्फ़ें हुई आज़ाद शुरु हुआ वो खेल जिस्मे देश हुआ बर्बाद, हर उतरते गहने के संग, सांसें रही थी फूल,और एक दूजे मे लिपटे पडे थे, दो बदन मशगूल,लोकतंत्र की चादर पे बनी सिल्वटों पर लेटे,इस संगम तल पिसे हुए मासूम फूलों को समेटे,खून के धब्बों पर, लथपथ पसीने में,होठ तो खामोश थे, पर चीख थी सीने में,चरमराती पलंग न्याय की, क्या कहती उसपे क्या बीती थी,उस काली रात जब, सुहागरात थी राज-नीती